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November 12, 2025

हिमाचल में 346 साल पुराने मेले की धूम : 35 लाख में लगा झूला, अरबों का होगा व्यापार

अगर सर्दी में गुदमा नहीं लिया, तो लवी आना अधूरा है

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Lavi Mela Himachal Rampur

शिमला। हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों में मेलों और उत्सवों की गूंज साल भर सुनाई देती है। देवभूमि कहलाने वाला यह प्रदेश अपनी प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ समृद्ध लोकसंस्कृति और धार्मिक परंपराओं के लिए भी जाना जाता है।

हिमाचल का सबसे बड़ा ट्रेड फेयर

प्रदेश के कुल्लू, शिमला, मंडी, कांगड़ा, बिलासपुर, सोलन, चंबा और सिरमौर में छोटे-बड़े देव मेलों, पशु मेलों और लोक उत्सवों का आयोजन किया जाता है। हर साल नवंबर के महीने में, जब सर्द हवाएं सतलुज घाटी को छूती हैं, तब रामपुर बुशहर में एक परंपरा फिर जीवंत होती है - लवी मेला। चार दिन का यह मेला हिमाचल प्रदेश के सांस्कृतिक और व्यापारिक इतिहास का एक अहम अध्याय है। इसे हिमाचल का सबसे बड़ा ट्रेड फेयर भी कहा जाता है।

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भारत-तिब्बत को जोड़ता था मेला

यह सिर्फ एक आयोजन नहीं, बल्कि उस पुराने विश्वास की याद है- जो कभी भारत और तिब्बत को जोड़ता था। लवी मेले की शुरुआत 17वीं शताब्दी में हुई। सन 1639 से 1696 के समय में ही लवी मेले का शुभारंभ हो गया था। मगर,  1911 के करीब तत्कालीन बुशहर रियासत के राजा केहरी सिंह के समय तिब्बत के राजा के साथ हुई संधि के बाद इस मेले का महत्व और बढ़ गया।

भेजा और खरीदा जाता था सामान

उस समय मेले में काबुल, कंधार, तिब्बत देशों के कारोबारी यहां आते थे। हालांकि तिब्बत से हुई संधि के बाद इस समझौते ने दोनों क्षेत्रों के बीच करमुक्त व्यापार का रास्ता खोला। तिब्बत से पश्मीना, ऊन, भेड़-बकरियां, चिलगोजा और सूखे मेवे आते थे - जबकि रामपुर से नमक, गुड़, अनाज, मसाले और देसी घी वहां भेजे जाते थे।

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व्यापारिक परंपरा याद दिलाता है मेला

पुराने समय में सभी चीजें हर क्षेत्र में आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती थी- मगर इस मेले ने कई देशों का काम आसान कर दिया। जब कई देशों के व्यापारी एक स्थान पर पहुंचकर सामान का आदान-प्रदान किया करते थे। यह मेला उसी व्यापारिक परंपरा की याद दिलाता है।

 

क्या है लवी का मतलब?

‘लवी’ शब्द की उत्पत्ति किन्नौरी बोली के शब्द ‘लोए’ या लोइया से मानी जाती है, जिसका अर्थ है ऊन या ऊनी वस्त्र। यानी इस मेले की जड़ें सीधे हिमालय की भेड़ों, ऊन और मेहनतकश लोगों से जुड़ी हैं। तब व्यापार सिर्फ पैसे का नहीं था - यह भरोसे और वचन का व्यापार था।

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लवी में बनते हैं रिश्ते...

लोग कहते थे - “जहां लवी लगे, वहां रिश्ते भी बनते हैं और सौदे भी।” कभी यह मेला तिब्बत से लेकर अफगानिस्तान तक के व्यापारियों का केंद्र हुआ करता था। किन्नौर, लाहौल-स्पीति, कुल्लू, मंडी, शिमला जैसे इलाकों से व्यापारी पैदल या खच्चरों पर सामान लेकर रामपुर पहुंचते थे।

लवी का इंतजार करते थे लोग

सतलुज किनारे यही मैदान उस वक्त व्यापार का केंद्र था - जहां ऊन, घोड़े और नमक का बड़ा आदान-प्रदान होता था। रामपुर का यह इलाका उस दौर में बुशहर रियासत की राजधानी था और लवी मेला उसकी आर्थिक धड़कन। पूरे साल भर में लोग इसी एक मेले का इंतजार किया करते थे।

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गुदमा नहीं लिया...तो लवी आना अधूरा

बीसवीं सदी की शुरुआत तक लवी मेला “लोई मेला” कहलाता था। क्योंकि यहां ऊनी कंबल और पश्मीना की सबसे ज्यादा बिक्री होती थी। किन्नौर के सुनम गांव का ऊनी गुदमा, एक तरह का मोटा कंबल- उस समय की पहचान था। कहते हैं - “अगर सर्दी में गुदमा नहीं लिया, तो लवी आना अधूरा है।”

 

वहीं किन्नौर से आने वाले व्यापारी ड्राई फ्रूट लेकर आया करते थे। किन्नौर के चिलगोजे से लेकर चुल्ली और चुल्ली के तेल की खास तौर पर डिमांड रहती थी। फिर 1962 के बाद जब भारत-चीन सीमा बंद हुई, तो तिब्बती व्यापारियों का आना रुक गया। लेकिन मेला जारी रहा - और अब यह सिर्फ व्यापार नहीं, बल्कि संस्कृति का प्रतीक बन गया। दीपावली के बाद  आयोजित यह मेला फसल कटाई के बाद का धन्यवाद उत्सव भी माना जाता है।

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सिर्फ आयोजन नहीं उत्सव का माहौल

हर साल 11 से 14 नवंबर तक लवी मैदान में हजारों स्टॉल सजते हैं। कपड़े, ऊनी उत्पाद, किन्नौरी टोपी, चांदी के गहने, हस्तशिल्प, मसाले और स्थानीय खानपान - सब कुछ यहां एक ही जगह पर मिलता है। ढोल-नगाड़ों की थाप पर लोकगीत गूंजते हैं, किन्नौरी नाटी की ताल पर लोग झूमते हैं। सिड्डू और मधरा की खुशबू हर गली में फैली होती है। यह मेला रामपुर के लिए सिर्फ आयोजन नहीं, एक उत्सव का माहौल है।

चामुर्थी घोड़ा बना आकर्षण का केंद्र

1985 में जब वीरभद्र सिंह ने लवी मेले को “अंतरराष्ट्रीय मेला” घोषित किया, तो इसकी पहचान सीमाओं से बहुत आगे चली गई। तब अफगानिस्तान और मध्य एशिया के व्यापारी भी यहां पहुंचने लगे। चामुर्थी नस्ल के घोड़ों का व्यापार मेले का मुख्य आकर्षण बन गया। चामुर्थी घोड़ा, जिसे शीत मरुस्थल का राजा कहा जाता है, अपनी सहनशक्ति और संतुलन के लिए प्रसिद्ध है।

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अश्व प्रदर्शनी की परंपरा

आज भी 1 से 3 नवंबर तक होने वाली “अश्व प्रदर्शनी” इसी परंपरा को जीवित रखे हुए है। लेकिन समय के साथ मेले की शक्ल बदल चुकी है। ऑनलाइन बाजार, शहरी उपभोक्ता संस्कृति और आधुनिक सुविधाओं ने स्थानीय हस्तशिल्प की चमक कुछ कम कर दी है। पहले जहां हाथ से बुने कपड़े और ऊनी उत्पाद बिकते थे, अब वहां तैयार माल और मशीन बनी चीजें दिखने लगी हैं।

 

फिर भी लवी मेला अब भी अपनी पहचान बनाए हुए है। इस बार लवी मेला कुछ नए रंग लेकर आया है। किन्नौरी मार्केट से लेकर दिल्ली मार्केट- बुशहरी मार्केट और लोकल मार्केट में इस बार हर साल की तरह खास सामान बेचा जाएगा।

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35 लाख के झूले

मुख्य मंच यानी डूम 45 लाख रुपये में सजाया गया है, जबकि झूले का टेंडर 35 लाख में गया है। सभी स्टॉलों का आवंटन ऑनलाइन प्रक्रिया से हुआ है ताकि हर व्यापारी को समान अवसर मिल सके। मेला मैदान से लेकर राष्ट्रीय राजमार्ग तक स्टॉल सज चुके हैं और सफाई व सुरक्षा की पूरी व्यवस्था की गई है। नगर परिषद ने CCTV निगरानी, आपातकालीन सेवाओं और एंबुलेंस सुविधा का भी इंतजाम किया है।

हिमाचली कलाकारों को समर्पित सांस्कृतिक संध्याएं

इस साल की सांस्कृतिक संध्याएं पूरी तरह हिमाचली कलाकारों को समर्पित हैं। स्थानीय बैंड्स, नाटी कलाकार और किन्नौरी नृत्य समूह मंच पर होंगे। इसके साथ ही बुशहर बॉक्सिंग क्लब और कबड्डी क्लब की प्रतियोगिताएं भी विशेष आकर्षण हैं। इस बार युवाओं को खेलों से जोड़ने और नशे से दूर रखने का संदेश भी ये मेला दे रहा है। लवी मेला हमेशा से सामाजिक जुड़ाव की मिसाल रहा है।

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इस बार खास व्यवस्था

इस साल प्रशासन ने इसे “साफ-सुथरे और सुरक्षित मेले” की थीम पर सजाया है। स्वच्छता अभियान, ट्रैफिक नियंत्रण और डिजिटल पार्किंग व्यवस्था- सब इस बार पहली बार लागू किए गए हैं। इतना ही नहीं - इस बार एक नया प्रयोग भी किया जा रहा है। ड्रोन शो, जो पहली बार लवी के इतिहास को आसमान में रोशनी के जरिये दिखाएगा। ऊन, घोड़े, देवता और सतलुज-सब कुछ रोशनी की आकृतियों में झलकेगा।

उत्सव में भी परंपरा

लवी मेला सिर्फ एक आयोजन नहीं, हिमाचल की आत्मा का आईना है। यह उस संस्कृति का प्रतीक है जहां व्यापार में भी उत्सव है और उत्सव में भी परंपरा। सदियों पुराना यह मेला आज भी यह बताता है कि बदलते वक्त के बावजूद, लोकजीवन की डोर अब भी विश्वास से बंधी है।

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