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July 26, 2025

करगिल का सुपरहीरो- हिमाचल के इस वीर से खौफ खाती थी पाकिस्तानी फौज, दिया था शेरशाह नाम

सबसे ऊंची चोटी पर लहराया था तिरंगा

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Vikram Batra

कांगड़ा। जिस दिल में हो जुनून वतन के लिए, उसकी धड़कन बन जाती है इतिहास की आवाज। आज से ठीक 26 साल पहले, एक शेरदिल युवा अफसर, जो हिमाचल की वादियों से निकलकर देश की सरहदों पर दुश्मनों से दो-दो हाथ कर रहा था, कारगिल की कठिन चोटियों पर जीत का परचम लहराकर अमर हो गया।

बचपन से ही सेना से था लगाव

विक्रम बत्रा का जन्म 1 जुलाई, 1974 को कांगड़ा जिले के पालमपुर में हुआ था। विक्रम बत्रा को बचपन से ही सेना से गहरा लगाव था। पढ़ाई में होशियार, खेलों में अव्वल और मन में हमेशा देशसेवा का जज्बा- ये तीन चीजें उनके व्यक्तित्व की पहचान थीं।

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कहां से शुरू हुआ सफर?

1996 में IMA देहरादून से पास आउट होकर उन्होंने सेना में कमीशन लिया और फिर उन्हें 13 JAK राइफल्स में नियुक्त किया गया। यहीं से शुरू हुआ उस नायक का सफर, जो कुछ ही सालों में भारत माता के सबसे वीर सपूतों में शुमार हो गया।

कारगिल का रण और ‘शेरशाह’ का यशगान

कारगिल युद्ध, जो मई 1999 में शुरू हुआ, भारतीय सेना के लिए एक कठिन परीक्षा थी। दुश्मन पाकिस्तानी सेना ने बर्फीली चोटियों पर कब्ज़ा जमाया हुआ था, लेकिन भारतीय फौज ने एक-एक इंच जमीन दुश्मन से वापस छीनी। इसी युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा को 'शेरशाह' का कोडनेम दिया गया। उन्हें प्वाइंट 5140 और बाद में प्वाइंट 4875 पर कब्जे की जिम्मेदारी सौंपी गई- दोनों जगहों पर भारी दुश्मन मौजूद था और रास्ते बेहद जोखिम भरे।

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ये दिल मांगे मोर

20 जून 1999 की रात, कैप्टन बत्रा ने अपने साथियों संग दुश्मन की फायरिंग झेलते हुए प्वाइंट 5140 पर धावा बोला। जब जीत सुनिश्चित हुई तो उन्होंने वॉर फील्ड वायरलेस पर अपने कमांडिंग ऑफिसर कर्नल वाई. के. जोशी को कोडवर्ड में संदेश दिया- “चाणक्य... शेरशाह इज रिपोर्टिंग... ये दिल मांगे मोर!”

सिर्फ नारा नहीं जीत का था ऐलान

यह कोई सिर्फ नारा नहीं था- यह था विजय का ऐलान, यह था एक योद्धा की अगली लड़ाई के लिए तत्परता। यहां 'चाणक्य' कर्नल जोशी का कोड था, 'शेरशाह' खुद कैप्टन बत्रा का, और 'ये दिल मांगे मोर' का मतलब था-अगली चोटी पर हमला करने को तैयार हैं।आज भी जब ये नारा कहीं गूंजता है, तो विक्रम बत्रा की आवाज जेहन में उतर जाती है।

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"जय माता दी!" कहकर अमर हो गया शेरशाह

7 जुलाई 1999, वह दिन जब कैप्टन बत्रा अपने साथियों के साथ प्वाइंट 4875 पर हमला करने निकले। चोटी पर घमासान युद्ध जारी था। गोलियां, बर्फ, दुश्मन की खाइयां-सब कुछ उनके सामने था, लेकिन विक्रम पीछे हटने वालों में नहीं थे। जब एक घायल साथी को बचाने के लिए वे आगे बढ़े, तभी एक गोली उन्हें जा लगी। “जय माता दी!” की गूंज के साथ वे शहीद हो गए, लेकिन दुश्मनों को पीछे धकेलकर विजय भी दिला गए।

देश ने अपने सपूत को दी सर्वोच्च सैन्य श्रद्धांजलि

कैप्टन विक्रम बत्रा को उनकी अद्भुत वीरता, रणनीतिक कौशल और बलिदान के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च युद्ध सम्मान 'परमवीर चक्र' से नवाजा गया। उनके माता-पिता ने राष्ट्रपति से यह सम्मान ग्रहण किया।

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कोडवर्ड कैसे बना राष्ट्रीय गर्जना

दरअसल कारगिल युद्ध के दौरान दुश्मन भारतीय सेना के वायरलेस कम्युनिकेशन को इंटरसेप्ट करता था। इसीलिए सेनाएं कोडवर्ड में बातचीत करती थीं। "ये दिल मांगे मोर" उस विजय संकेत का नाम था, जिससे यह स्पष्ट होता था कि मिशन सफल है और अगली लड़ाई को लेकर भी जोश बरकरार है। आज यह नारा सिर्फ सेना के लिए नारा नहीं बल्कि पूरे देश का विजय मंत्र बन चुका है।

देश आज भी कहता है- शेरशाह अमर रहे

चाहे सड़कों के नाम हों, चाहे स्कूलों की दीवारें, चाहे युवाओं के सीने पर तने जोश- कैप्टन विक्रम बत्रा की विरासत अमर है। उन पर बनी फिल्म "शेरशाह" ने नई पीढ़ी को उनके जीवन से जोड़ा और उनकी शहादत को फिर एक बार जन-जन तक पहुंचाया।

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माता-पिता ने किया बेटे को याद

वहीं, कैप्टन बत्रा के पिता J.L. बत्रा और मां कमलकांता बत्रा आज भी अपने बेटे की शहादत को गर्व के साथ याद करते हैं। उनके पिता ने कहा, विक्रम केवल हमारा बेटा नहीं था, वो पूरे देश का बेटा था। उसकी शहादत पर हमें गर्व है।

मां के बेहद करीब थे विक्रम

उनकी मां कमलकांता बत्रा, जो खुद भी एक शिक्षिका रहीं, ने विक्रम के व्यक्तित्व में करुणा, सहानुभूति और देश के प्रति समर्पण के भाव को आकार दिया। विक्रम अपनी मां के बेहद करीब थे। आज भी जब उनकी मां मीडिया से बात करती हैं, तो आंखों में गर्व और गले में भर्राहट साफ झलकती है।

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विक्रम बत्रा के एक जुड़वा भाई हैं-विशाल बत्रा। दोनों भाइयों में बेहद गहरा रिश्ता था। विशाल कॉर्पोरेट जगत में काम करते हैं, लेकिन हमेशा विक्रम की स्मृति को जीवंत रखने के लिए प्रयासरत रहते हैं। उन्होंने विक्रम की कहानी को हर मंच पर साझा किया, फिल्म “शेरशाह” के निर्माण में भी उनका बड़ा योगदान रहा।

कहानी एक अधूरी मोहब्बत की, जो अमर हो गई

डिंपल चीमा, कैप्टन विक्रम बत्रा की मंगेतर थीं। दोनों की मुलाकात चंडीगढ़ में हुई थी जब विक्रम पंजाब यूनिवर्सिटी से MA कर रहे थे। जल्द ही दोनों का रिश्ता दोस्ती से आगे बढ़ा और उन्होंने जीवन भर साथ निभाने का वादा कर लिया।

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"मैं सिर्फ विक्रम की हूं"- डिंपल का प्रण

कैप्टन बत्रा के शहीद होने के बाद डिंपल ने शादी नहीं की। उन्होंने कहा था कि मैंने विक्रम को अपने जीवन साथी के रूप में चुना था और वही मेरे जीवन का अंतिम निर्णय था। आज भी डिंपल समाजसेवा से जुड़ी हुई हैं, मीडिया से दूर रहती हैं और विक्रम की यादों में ही जीवन बिता रही हैं। उनका यह समर्पण लोगों की आंखें नम कर देता है और सच्चे प्रेम की मिसाल बन चुका है।

शेरशाह की परछाईं अब भी साथ चलती है

कैप्टन विक्रम बत्रा का परिवार आज भी युवाओं को प्रेरित करता है। वे स्कूलों, कॉलेजों और राष्ट्रीय मंचों पर जाकर विक्रम की गाथा सुनाते हैं। डिंपल का मौन प्रेम और प्रतीक्षा हर उस दिल को छू जाता है जो वफा और बलिदान को समझता है।

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