#धर्म
March 18, 2025
हिमाचल के वो देवता महाराज : जो करते हैं 600 किलोमीटर की पैदल यात्रा
जाइयों और भांजों पर लुटाते हैं ढेर सारा स्नेह
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शिमला। देवभूमि हिमाचल के लोग देवी-देवताओं को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं। लोग अपने देवताओं को केवल पूजनीय नहीं, बल्कि संरक्षक भी मानते हैं। यहां हर गांव का अपना स्थानीय देवता या देवी होती है। इन देवताओं की अपनी मान्यताएं और परंपराएं होती हैं, जिन्हें पीढ़ियों से निभाया जाता रहा है।
देवता केवल पूजा तक सीमित नहीं रहते, बल्कि किसी भी शुभ कार्य, त्योहार या महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले देवी-देवताओं की राय ली जाती है। हिमाचल में देव परंपरा की एक विशेषता यहां की देव पालकी यात्रा है। यह परंपरा सदियों पुरानी है, जिसमें गांव के देवता की पालकी भक्तों द्वारा कंधे पर उठाकर यात्रा करवाई जाती है। पालकी यात्रा के दौरान भक्त नाचते-गाते हैं और भक्ति में लीन हो जाते हैं।
आज के अपने इस लेख में हम आपको हिमाचल के एक ऐसे देवता महाराज के बारे में बताएंगे- जो 600 किलोमीटर की पैदल यात्रा करते हैं। यह देवता महाराज अपनी जाइयों और भांजों पर ढेर सारा स्नेह लुटाते हैं। इन देवता साहिब का गूर बनने की यात्रा भी बेहद ही कठिन है।
हम बात कर रहे हैं उत्तराखंड से हिमाचल के रामपुर में आकर विराजित हुए देवता साहिब पवासी महासू जी महाराज की- जो आज से साढ़े 400 साल पहले बुरी शक्तियों का खात्मा और धर्म की स्थापना करने के लिए 'मजटू परिवार' के साथ तकलेच के थेडा गांव में विराजित हुए थे।
लोग बताते हैं कि अगर इन देवता साहब के क्षेत्र में किसी लड़के की शादी की बात चल रही हो और अगर लड़की या लड़की वाले किसी भी वजह से शादी से इनकार कर देते हैं- तो देवता पवासी महासू जी महाराज उन पर अपना दोष लगाते हैं। इतना ही नहीं शादी से मना करने वाली लड़की को दोष के निवारण के लिए उनके ही मंदिर की दहलीज पर आना पड़ता है।
मुश्किल वक्त में अपनी जाइयों और भांजों को कभी साक्षात, तो कभी पक्षी, मधुमक्खी या सिंह रूप में दर्शन देने वाले देवता पवासी महासू जी महाराज के अनेकों चमत्कार आज भी साक्षात देखने को मिलते हैं- मगर उनका बखान करना देव नियमों के हिसाब से आज भी निषेध है।
मगर हम आपको इतना जरूर बता सकते हैं कि ये देवता महाराज हर 7 से 9 साल के बाद 600 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर हनोल से थडियार उतराखंड यानी अपने मूल स्थान होते हुए देवबन तीर्थ पर जाते हैं। वहीं, इनके गूर बनने वाले शख्स को रात के अंधेरे में अकेले ही दूरदराज कांडे- मुराल डंडा जाना पड़ता है- जहां रहने वाली सावणियां गूर के सिर पर 7 पाची बांध देती हैं, जिन्हें लेकर गूर वापस मंदिर लौट आते हैं।