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April 7, 2025

हिमाचल के इस गांव में विराजते हैं देवताओं के सेनापति, यहां नहीं पाला जाता है मुर्गा

इस गांव ने नहीं खाया जाता मुर्गा

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Devta Kelang Bajir

चंबा। देवभूमि हिमाचल के लोग देवी-देवताओं को अपने जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं। यहां हर गांव का अपना स्थानीय देवता या देवी होती है। लोग अपने देवताओं को केवल पूजनीय नहीं, बल्कि संरक्षक भी मानते हैं। देवता केवल पूजा तक सीमित नहीं रहते, बल्कि किसी भी शुभ कार्य, त्योहार या महत्वपूर्ण निर्णय लेने से पहले देवी-देवताओं की राय ली जाती है।

पीढ़ियों से चली आ रही मान्यताएं

इन देवताओं की अपनी मान्यताएं और परंपराएं होती हैं, जिन्हें पीढ़ियों से निभाया जाता रहा है। हिमाचल में देव परंपरा की एक विशेषता यहां की देव पालकी यात्रा है। यह परंपरा सदियों पुरानी है, जिसमें गांव के देवता की पालकी भक्तों द्वारा कंधे पर उठाकर यात्रा करवाई जाती है।

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गांव में नहीं पाला जाता मुर्गा

आज के अपने इस लेख में हम आपको हमारे हिमाचल के एक ऐसे गांव के बारे में बताएंगे- जहां ना तो मुर्गा खाया जाता है और ना ही पाला जाता है। दरअसल, यहां पर विराजने वाले देवता के झंडे में मुर्गा बना हुआ है। इन देवता साहिब का वाहन हमारे देश का नेशनल बर्ड यानी मोर है।

 

देवातओं के सेनापति का गांव

हम बात कर रहे हैं चंबा के अंतिम गांव कुगति की- जहां चलता है भगवान शिव शंकर के सबसे बड़े पुत्र कार्तिक स्वामी यानी न्याय के देवता केलंग बजीर का राज और इन्हें ही कहते हैं देवताओं का सेनापति।

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माता पार्वती को दिया था श्राप

वैसे तो, युद्ध के देवता माने जाने वाले केलंग बजीर का जन्म ताड़कासुर राक्षस का वध करने के लिए हुआ था, लेकिन उन्होंने एक बार माता पार्वती को भी श्राप दे दिया था।

छोड़ दिया कैलाश पर्वत

कथा अनुसार, जब माता पर्वती ने बिना बताए गणेश जी का राज्याभिषेक कर दिया- तो भगवान कार्तिकेय इतने अधिक क्रोधित हुए कि कंकाल स्वरूप में कैलाश पर्वत ही छोड़ दिया। जहां से वो सीधा कुगति पहुंचे और वहां आराम करने के बाद लाहुल की तरफ चले गए।

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मनाने लगे देवी-देवता

लाहुल के कई सारी देवी-देवताओं ने उन्हें मनाने का प्रयास किया, लेकिन जब वो नहीं माने तो भगवान शिव शंकर खुद लाहुल आना पड़ा। मगर इसके बावजूद भगवान कार्तिकेय ने कैलाश वापस लौटने से इनकार कर दिया और अपने पिता की आज्ञा से शिव भयाली में रहने लगे।

डल झील में कूदते हैं चेले

बता दें कि राधाष्टमी के दिन मणिमहेश में होने वाले शाही स्नान के दौरान डल तोड़ने की अहम रस्म में केलंग बजीर के गूरों की अहम भूमिका होती है। डल तोड़ने की रस्म निभाने से पहले शिव चेलों समेत भद्रवाह से आई छड़ियां डल झील की परिक्रमा करती हैं। इसके बाद केलंग बजीर के गूर संचूई के शिव चेलों को इशारा करते हैं और देखते ही देखते चेले डल झील में कूद कर इसे आर-पार कर जाते हैं।

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