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October 21, 2025
हिमाचल : आपदा की काली छाया में फीकी पड़ी दीपावली, सैकड़ों परिवार तिरपालों के नीचे बिता रहे ज़िंदगी
दीपावली की जगह दर्द का त्योहार
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कुल्लू। देवभूमि हिमाचल में जहां आमतौर पर दीपावली का पर्व उमंग, रौनक और उजाले का प्रतीक माना जाता है, वहीं इस बार कुल्लू जिले के कई गांवों में यह त्योहार मातम और बेबसी के बीच बीता है। जो घर कभी खुशियों और रोशनी से जगमगाते थे, आज वे मलबे और तिरपालों के नीचे अपनी पहचान खोज रहे हैं।
हर साल दीपावली से पहले कुल्लू की घाटियां दीपों की रौशनी से नहा उठती थीं, बाजारों में रौनक रहती थी, मिठाइयों की दुकानों पर भीड़ लगी रहती थी। लेकिन इस बार न तो मिठास दिखी, न शोर-शराबा, न उल्लास। इस पर्व ने इन परिवारों के लिए एक ऐसी पीड़ा लेकर दस्तक दी है, जो उनके जख्मों को और ताजा कर रही है। इस साल की भारी बारिश ने कुल्लू जिले को गहरे जख्म दिए हैं।
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प्रशासनिक आंकड़ों के अनुसार, करीब 400 से अधिक परिवार अब भी विस्थापित स्थिति में हैं। इनमें से कुछ ने रिश्तेदारों या पड़ोसियों के घरों में शरण ली है, जबकि 100 से ज्यादा परिवार तिरपालों और अस्थायी शिविरों में ठिठुरती ठंड का सामना कर रहे हैं। करीब 150 परिवार रिश्तेदारों के सहारे जीवन काट रहे हैं, वहीं कई परिवार किराए के छोटे कमरों में किसी तरह गुजारा कर रहे हैं।
कई ग्रामीणों का कहना है कि, “जब सिर पर छत ही नहीं रही, तो दीपावली मनाने का क्या अर्थ? अब तो हर रोशनी हमें अपने जले हुए घरों की याद दिलाती है।” यह दर्द सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि उन सैकड़ों परिवारों का है जिन्होंने एक ही झटके में अपनी पूरी जमा-पूंजी, घर और उम्मीदें खो दीं।
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सराज घाटी, जो कभी दीपावली पर चमकते दीयों और चहल-पहल से भरी रहती थी, इस बार पूरी तरह खामोश है। बगस्याड़, थुनाग और जंजैहली जैसे प्रमुख बाजारों में इस बार न कोई खरीदारी का उत्साह है और न ही भीड़। भूस्खलन से तबाह दुकानों और घरों की दीवारें अब तक पूरी तरह खड़ी नहीं हो पाई हैं। कई दुकानदारों ने अब तक अपना व्यवसाय शुरू नहीं किया है कुछ के पास पूंजी नहीं बची, तो कुछ के पास हिम्मत नहीं।
इस बार की दीपावली कुल्लू के लिए एक ‘दर्द की दीपावली’ बन गई है। जहां बाकी प्रदेश में दीपों से घर सजे हैं, वहीं कुल्लू की घाटियों में तिरपालों के नीचे ठंडी हवा और यादें पसरी हैं। बच्चों के चेहरे पर वह मासूम मुस्कान नहीं है जो हर साल दीपावली पर दिखती थी।
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बुजुर्गों की आंखों में अब सिर्फ अपने टूटे घरों और उजड़े सपनों की तस्वीर है। जिन दीयों की लौ हर बार आशा जगाती थी, इस बार वही दीये आंखों में नमी और दिलों में खामोशी छोड़ गए हैं। कुल्लू की यह दीपावली आने वाले वर्षों तक उन घावों की याद दिलाती रहेगी, जो प्रकृति के कहर ने इन पहाड़ों पर छोड़े हैं।