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June 29, 2025
अपने गीत से वीरभद्र सिंह की आंखें कर गए थे नम- बिना गुरु के शुरू की संगीत यात्रा- अब मिला बड़ा सम्मान
बॉलीवुड अभिनेत्री ईशा देओल के हाथों मिला राष्ट्रीय पुरस्कार, 100 से ज्यादा गीतों से हिमाचल की संस्कृति को दी नई पहचान
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कुल्लू। कुल्लू-मनाली की वादियों में बसा एक छोटा सा गांव दोगरी आज गर्व से सिर ऊंचा कर सकता है। इसी गांव की माटी में पले-बढ़े लोकगायक इंद्रजीत को हाल ही देहरादून में आयोजित एक्सीलेंस आइकोनिक अवॉर्ड 2025 में ‘हिमाचल रत्न सम्मान’ से नवाजा गया। यह सम्मान उन्हें बॉलीवुड अभिनेत्री ईशा देओल के हाथों प्रदान किया गया।
यह महज़ एक पुरस्कार नहीं, उस संकल्प की पहचान है जिसे इंद्रजीत ने अपने जीवन का मिशन बना लिया कि हिमाचल की लोकसंस्कृति को जीवित रखना है और उसे वैश्विक मंच तक पहुँचाना।
12 मार्च 1992 को जन्मे इंद्रजीत ने संगीत में बिना किसी पारंपरिक शिक्षा या सुविधा के शुरुआत की। महज़ 16 साल की उम्र में उन्होंने खुद लिखे और कंपोज किए गए 10 गीतों की पहली वीडियो एल्बम ‘दिल का क्या कसूर’ सीडी पर रिलीज़ की। यह वह दौर था जब डिजिटल प्लेटफॉर्म का जमाना नहीं आया था।
पर इंद्रजीत की सोच वक्त से काफी आगे थी। उन्होंने कभी फिल्मों या चमक-दमक की दुनिया का सहारा नहीं लिया, बल्कि हिमाचल की बोली, टोपी और संस्कृति को सिर पर रखकर दुनिया के सामने प्रस्तुत किया।
2016 में आया उनका गीत ‘हाड़े मेरे मामुआ’ वह मोड़ था जिसने उन्हें घर-घर में लोकप्रिय बना दिया। इसके बाद ‘लाड़ी शाऊणी’, ‘पाखली माणू’, ‘बुधुआ मामा’, ‘साजा लागा माघे रा’ जैसे गीतों ने यूट्यूब पर लाखों दिलों को छू लिया और हिमाचली विरासत को एक नए युग से जोड़ दिया।
इंद्रजीत के गीत मनोरंजन के साथ-साथ समाज को जागरूक भी करते हैं। ‘अठारह करडू’ जैसे गीत जहां देव संस्कृति को समर्पित हैं, वहीं ‘मता केरदे नशा’ युवाओं को नशे से दूर रहने की प्रेरणा देता है।
इंद्रजीत ने हिमाचल के छह बार मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय राजा वीरभद्र सिंह के जीवन पर आधारित गीत भी अपनी आवाज़ में प्रस्तुत किया। यह गीत इतना भावुक था कि स्वयं वीरभद्र सिंह की आंखें भी भर आई थीं। यह गीत उनके जीवन, संघर्ष और हिमाचल के प्रति समर्पण की झलक थी।
इंद्रजीत अब सिर्फ एक लोकगायक नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक अभियान बन चुके हैं। उन्होंने देश-विदेश में अनेकों मंचों पर हिमाचल का प्रतिनिधित्व किया है और 100 से अधिक गीतों के ज़रिए पहाड़ की संस्कृति को नई पीढ़ी से जोड़ा है।
देहरादून में आयोजित सम्मान समारोह में इंद्रजीत ने यह पुरस्कार पूरे हिमाचल को समर्पित किया। उन्होंने कहा कि यह सम्मान मेरा नहीं, बल्कि हिमाचल की उस माटी का है जिसने मुझे सुर दिए, भाषा दी, पहचान दी।
इंद्रजीत की यात्रा इस बात का प्रतीक है कि अगर कोई अपनी जड़ों से जुड़ा रहे, तो वह किसी भी ऊंचाई को छू सकता है। उनके गीतों में वह मिट्टी महकती है, जिसमें हिमाचल की आत्मा बसती है।