शिमला। एक जवान जो लड़ाई के बाद वापस नहीं लौटा, लेकिन आज भी यूनिट द्वारा जीवित माना जाता है। किसी व्यक्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक भेड़ के। बड़ी बात ये है कि यह भेड़ आज भी हिमाचल प्रदेश में गोरखा राइफल्स में शामिल है और सैन्य सम्मान प्राप्त करती है।
कहीं खो गए थे चिंता बहादुर
बात साल 1944 की बात है, जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश-भारतीय सेना बर्मा में जापान से लड़ रही थी। इस बीच, गोरखा राइफल्स के जवान राइफलमैन चिंता बहादुर अपने यूनिट के साथ थे। लेकिन, एक दिन अचानक वह लापता हो गए। कई दिनों तक उनकी खोज होती रही, लेकिन कहीं कोई पता नहीं चला। अंततः, गोरखा यूनिट ने उन्हें हमेशा के लिए खो दिया समझा।
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यूनिट में शामिल हुई भेड़
लेकिन इस बीच एक चमत्कार हुआ। चिंता बहादुर के लापता होने के कुछ दिनों बाद, एक भेड़ यूनिट में शामिल हो गई। यह भेड़ हर जगह उनके साथ रहने लगी, जिससे चिंता बहादुर के साथी इसे उनके खोए हुए साथी का अवतार मानने लगे। यही नहीं, यह भेड़ 1944 से लेकर अब तक गोरखा यूनिट का हिस्सा बनी हुई है और यूनिट में इसे चिंता बहादुर का प्रतीक माना जाता है।
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भेड़ अब कैप्टन पद पर तैनात
आज, यह भेड़ हिमाचल प्रदेश के सोलन जिला स्थित डगशाई इलाके में तैनात है। गोरखा राइफल्स के जवान इसे "लकी मसकैट" मानते हैं। यह भेड़ अब "कैप्टन" के रैंक पर है और नियमित रूप से यूनिट की फिजिकल ट्रेनिंग में भाग लेती है। इसका रंग भी यूनिट के हरे और काले रंगों में रंगा गया है, जिससे यह पूरी तरह से यूनिट का हिस्सा बन गई है।
यूनिट की परंपरा
भारतीय सेना के इस अनूठे रिवाज के अनुसार, जब भी एक भेड़ का जीवन पूरा होता है तो यूनिट एक नई भेड़ लाती है और उसे फिर से "चिंता बहादुर" नाम देती है। यह परंपरा पिछले 70 सालों से चल रही है। 23 जून, 2022 को इस भेड़ को "बैटल ऑनर डे" के मौके पर लांस नायक से नायक रैंक में प्रमोशन मिला, जो इसे गोरखा राइफल्स के लिए एक विशेष दिन बनाता है।
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गोरखा राइफल्स का इतिहास
बता दें कि गोरखा राइफल्स की स्थापना 1 अक्टूबर, 1940 को हुई थी। यह भारतीय सेना की सबसे प्रतिष्ठित यूनिट में से एक मानी जाती है। आज भी, यह यूनिट अपने वीरता और परंपराओं को जीवित रखे हुए है। इसी गोरखा राइफल्स का हिस्सा है भेड़।