शिमला। देवभूमि हिमाचल के शक्तिपीठों में नवरात्रों की धूम मची हुई है। नवरात्रि के नौ दिन माता के अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है। आज शारदीय नवरात्रि के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। मां ब्रह्मचारिणी देवी का रूप साधना और तप का प्रतीक है, जो अपने तप और संयम से जीवन में आत्म-संयम और धैर्य को महत्व देती हैं।
मां ब्रह्मचारिणी का स्वरूप-
मां ब्रह्मचारिणी सफेद वस्त्र धारण करती हैं और उनके एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में कमंडल होता है। वे संयम, साधना और साधुता की देवी हैं। उनके इस रूप से यह संदेश मिलता है कि व्यक्ति को कठिन परिश्रम और तपस्या से अपने जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करना चाहिए।
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क्या है पूजा की विधि?
स्नान और स्वच्छता-
सुबह स्नान करके स्वयं को शुद्ध करें और पूजा स्थल को साफ करें।
कलश स्थापन-
सबसे पहले पूजा स्थल पर कलश की स्थापना करें, जिसे माँ दुर्गा का प्रतीक माना जाता है।
मां ब्रह्मचारिणी का ध्यान-
मां ब्रह्मचारिणी का ध्यान करें और उनके सामने दीपक जलाएं।
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पूजा सामग्री-
देवी को पुष्प, अक्षत (चावल), कुमकुम, रोली, धूप, दीप और नैवेद्य अर्पित करें। सफेद फूल विशेष रूप से पसंद किए जाते हैं।
मंत्र उच्चारण-
मां ब्रह्मचारिणी के मंत्रों का उच्चारण करें, जैसे- "ॐ देवी ब्रह्मचारिण्यै नमः"
नैवेद्य और आरती:-
देवी को फल, मिठाई और नैवेद्य अर्पित करें, फिर आरती करें।
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मां ब्रह्मचारिणी के पूजन का महत्व-
- मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करने से साधक के जीवन में आत्म-संयम, तप और संयम का विकास होता है।
- यह दिन विशेष रूप से धैर्य और स्थिरता के लिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि देवी का यह रूप साधना और ज्ञान का प्रतीक है।
- माना जाता है कि जो भक्त उनकी उपासना करते हैं, वे जीवन की कठिनाइयों का सामना धैर्य और साहस से करने में सक्षम हो जाते हैं।
पूजन करने से भक्त को शांति, सफलता और आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है।
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मां ब्रह्मचारिणी की कथा-
देवी पार्वती, जो पूर्वजन्म में सती के रूप में जानी जाती थीं, ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए जन्म लिया था। जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए उन्हें कठोर तपस्या करनी होगी, तो उन्होंने अडिग संकल्प के साथ तपस्या का मार्ग चुना।
देवी पार्वती ने घोर तपस्या शुरू की, जो सहस्रों वर्षों तक चली। इस कठोर तप के दौरान उन्होंने केवल फल-फूल खाए, बाद में सूखे पत्तों पर जीवित रहीं और अंततः उन्होंने बिना अन्न और जल के भी तप किया। उनके इस कठिन तप के कारण ही उन्हें "ब्रह्मचारिणी" कहा गया, जिसका अर्थ है वह जो ब्रह्मचर्य (तपस्विनी) का पालन करती हैं। उनके इस दृढ़ संकल्प और तप से प्रसन्न होकर, सभी देवता और ऋषि-मुनि उनकी प्रशंसा करने लगे।
इतने कठोर तप और भक्ति के बाद, अंततः भगवान शिव ने उनकी तपस्या को स्वीकार किया और उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। माँ ब्रह्मचारिणी का यह रूप त्याग, संयम, और भक्ति का प्रतीक है। उनके इस रूप से यह संदेश मिलता है कि धैर्य, तपस्या, और आत्म-संयम से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।